लफ़्ज़ों की सच्चाई :-

కవిత

భార్గవి లహరి

शब्दों के इस पहेली को
सुलझाना है मुश्किल
लफ़्ज़ों की सच्चाई को
जानना है नामुमकिन

झूठ से सच को दफनाना
आसान है किंतु कब तक ?
कभी न कभी तो
दफ़न किए गए राज़
उभर कर बाहर आ ही जातें हैं

जब आतें हैं
तो सब बनाया गया
खेल बिगड़ जाता है
मनुष्य से उसका सब कुछ
एक क्षण में छिन जाता है

लोगों को झूठ बोलने वाले
पसंद नहीं किंतु वे झूठ बोल सकते हैं
लोगों को तथ्य कहने वाले
पसंद नहीं किंतु बहला-फुसलाकर
झूठ को सच की तरह बोलने वाले
बड़े अच्छे लगते हैं

किस हद तक
गिर गई है सोच हमारा
हमें लोगों के शब्दों का अर्थ तो
समझ आता है
किंतु उसके पीछे छुपा हुआ
इरादा हमें नजर नहीं आता

हमें अक्सर लोगों की बातें
सच्ची लगती है या फिर झूठी
और इस परिकल्पना में
हम शायद सही हो सकते हैं

पर जो इंसान
सही और गलत में फर्क कर पाऐगा
और लोगों की बातों का
सही मतलब निकालेगा और
उनके इरादों को समझेगा
वह इंसान जीवन नामक
पहेली को सुलझा पाएगा ।

Written by Bhargavi Lahari

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